ज़ख्म
ज़ख्म
दिल के दीवारों पे किसी को ज़ख़्म न दो
एक ज़ख्म जिन्दगी का रुख़ बदल देती है ।
वक़्त भर देता है नासूर भी जिस्म के मगर
एक झोंका भी दिल-ए-ज़ख़्म को सबल देती है ।
हर डाल पर सैयाद है दिल के तीर लेकर
क़ैद पंछी पिंजरे में लोगो को हज़ल देती है ।
जलाने बैठे है दीवाने दिल में आग लेकर
धुआँ दिल के जलने का हद-ए-नज़र देती है ।
जो अपने रक़्श से रौशन करती है महफिलें
मिटाकर खुद को वो सबके रात संवर देती है ।
क्या सुनाए हाल-ए-दिल क़फ़स-ए-उलफत का
औरों के लिए तो ये लफ़्ज़ बस ग़ज़ल देती है ।
शब्दार्थ -
हज़ल – तमाशा, रक़्श – नाच , क़फ़स – पिंजरा, उलफत – प्यार
Manisha Raghav
Excellent
मनीषा राघव
दिल के आइने में झांककर जो देखा , सिर्फ अपना ही ज़ख्म नजर आया , गर देख लेते गैरों का दर्द भूल उसमें तो अपना दर्द काम नज़र आता वक़्त के आइने मा धुंधला गए ज़खम गैरों के बस अपने सामने ज़खमों का हिसाब नजर आया APNI gazlen prattilipi par bhejna shuru kijiye
मनीषा राघव
दिल के आइने में झांककर जो देखा , सिर्फ अपना ही ज़ख़्म नजर आया , गर देख लेते गैरों का भी दर्द उसमें , तो अपना दर्द कम नज़र आता , वक़्त के आइने में धुंध ला गए ज़ख्म सारे , बस अपने ही ज़ख्मों का हिसाब नजर आया
chandrapal
bhut sunder