संवेदना


संवेदना

संवेदना

मन की विरह है,
मन की कुछ है वेदना।
झकझोरती रहती है,
करती है आन्दोलित, 
बतलाउँ किसे, समझाउँ किसे, 
मन में जो है संवेदना ।
कुछ चाह रह गई है,
मन में कुछ आस रह गई है, 
उलझकर मन के पन्नों में,
हर ख्वाहिशें मेरी, 
इस संसारी विषयों में । 
हमने यहाँ कुछ चाहा था, 
ठाना था कुछ करने की, 
जवानी थी हिलोरें लेती, 
हर तूफाँ से टकराने की, 
हर घाव में प्रमाद करने की । 
मंज़िल पे थी बस नज़र, 
और जा रहे थे इस क़दर, 
जैसे बादलों पे हो सफर, 
अब बारी थी फिसलने की, 
इसका न कोई इल्म था, 
अपने ही रखेंगे मुझे, 
गफ़लत में, न कोई जिक्र था ।
समन्दर ने भी दिया धोखा, 
न वो भी मुझे डुबा सका,
अब अपनों में ही उलझे रहे, 
मन की हर एक चाह अब, 
मन की गहराईयों में, 
दफ़न अब होते रहे । 
समझता है कौन अब,
मन की इस मेरी बला को, 
जिसके लिए न कर सका कुछ, 
बेकार में भटकते रहे,
कहानियाँ लिखते रहे, 
आरजू पे आरजू गढ़कर, 
खुद ही प्रफुल्लित होते रहे । 
अब कौन है जो मेरे इस, 
सपनों को उड़ान दे सकेगा, 
फिर से मेरे इस पंख में, 
एक नई जान भर सकेगा।

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