What is Nature
प्रकृति (Nature) क्या है ?
प्रकृति का अर्थ है - सहज स्वाभाविक गुण, या उसका स्वभाव जिसकी प्रकृति के बारे में हम चर्चा कर रहे है । हर वस्तु या जीव का अपना-अपना स्वभाव होता है, अपना-अपना गुण होता है, अपना-अपना नेचर होता है अर्थात उसका प्रकृति होता है । संसार में पाये जाने वाले हर जीव ( मनुष्य भी ) , जड़ हो या चेतन, प्राकृतिक हो, भौतिक या पदार्थिक जगत या ब्रह्मांड, सभी का अपना-अपना स्वभाव होता है । और वह इसी स्वभाव और गुण से जीता है या रहता है अपने जीवनकाल तक । प्रकृति का मतलब उसके मूल शक्ति से है, उसके मूल स्वभाव से है जिसमे कोई बाहरी बदलाव न किया गया हो वह उसकी प्रकृति होती है । जब किसी के मूल स्वभाव में जबरदस्ती या जान-बूझकर बदलाव किया जाता है तो वह अपने मूल स्वभाव को न तो पूर्णतः छोड़ पाता है और न ही नए बदलाव को पूर्णतः स्वीकार कर पाता है, फिर उसकी प्रकृति, विकृति में बदल जाती है ।
हम इसे और समझने के लिए कुछ एक उदाहरण लेते है - जैसे नदी, नदी का स्वभाव है बहना । जैसे जंगल, जंगल का स्वभाव है बढ़ना । जैसे पर्वत, पर्वत का स्वभाव है अडिग रहना । अब अगर नदी को बहने से रोका जाए, जंगल को काटा जाए, पर्वत को तोड़ा जाए । तो क्या होगा ...? हवा, पानी , जंगल , नदी , पर्वत और समंदर ये सभी पृथ्वी के स्वभाव में है, प्रकृति में है , नेचर में है । पृथ्वी के सामान्य जीवनकाल के लिए इसके प्रकृति का होना और प्रकृति के इन अंगों के आपस में संतुलन होना अति आवश्यक है । अगर नदी को रोका गया, हवा के रुख को बदलने की कोशिश की गई, जंगल को काटा गया, पहाड़ो को तोड़ा गया, पृथ्वी के प्रकृति में कुछ नुकसान पहुँचाने के कोशिश की गई तो पृथ्वी का जीवन संकट में चला जाएगा । इससे पृथ्वी ही नही इस पर जीने वाले हर एक जीव के लिए संकट हो जाएगा । पृथ्वी पर जीने वाले सभी जीवों में सबसे अधिक समझदार मनुष्य को यह समझना चाहिए कि अगर वह इस पृथ्वी पर जीना चाहता है तो सबसे पहले पृथ्वी के जीवन के बारे में सोचे, अन्यथा अपने पैरो पर कुल्हाड़ी चलाकर सुखी जीवन जीने के सपने देखना छोड़ दे ।
आज मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए पृथ्वी की प्रकृति को नष्ट कर रहा है । जंगलों को काट रहा है, पर्वतो को तोड़ रहा है । परिणामस्वरूप पृथ्वी का वातावरण बदलता जा रहा है , मौसम असंतुलित होती जा रही है , समय पर वर्षा नही हो पा रही है, कभी कम तो कभी बहुत ज्यादा बारिश हो रही है , कहीं सूखा तो कही अनियंत्रित बाढ़ झेलना पड़ रहा है । जब मनुष्य इस तरह के प्राकृतिक आपदाओं को झेलता है, नुकसान का लेखा-जोखा करता है, तब उसे प्रकृति और ईश्वर याद आते है फिर भी पृथ्वी के प्रकृति को बचाने के लिए कुछ नही करता, हाँ इसके नाम पर कुछ दिन पाखंड जरूर कर लेते है, कुछ दिखावा कर लेते है, कुछ राजनीति कर लेते है, एक-दूसरे पर आरोप लगाकर बचने की कोशिश कर लेते है , और भूल जाते है उन बीते आपदा को और नुकसान को, छोड़ देते है फिक्र आने वाले आपदाओ के बारे में, और चल पड़ते है फिर उसी रास्ते पर जहाँ मनुष्य और प्रकृति के बीच जंग चल रही होती है । ये जंग बिल्कुल मूर्खतापूर्ण जंग है, ये कुछ ऐसा है जैसे कि जिस डाल पर हम बैठे है उसी को काट रहे है ये जानते हुए भी कि डाल कटने पर हम गिरेंगे, और कोई उपाय नही है बचने का । फिर भी हम काटे जा रहे है । इस मूर्खतापूर्ण जंग में हम अपने आने वाली पीढ़ियों का भविष्य अंधेरे में डाल रहे है ।
मनुष्य समझदार इसलिए है कि वो इस धरती के प्रकृति को समझे, जाने, फिर बाद में कोई फैसला करे । फैसला ऐसा हो जो इस प्रकृति के विरुद्ध न हो । मनुष्य अपने समझ को विकसित करके अपने स्वभाव को बदल कर जी सकता है और इस प्रकृति को बचा सकता है, इसी में सबकी भलाई है, लेकिन आज मनुष्य स्वार्थी हो गया है, अपनी दूरदर्शिता खो चुका है, प्रकृति के बारे में कुछ सोचता नही, चारो तरफ प्रकृति से युद्ध कर रहा है । हर तरफ मात खा रहा है मनुष्य, लेकिन फिर भी एक समझदार जीव को समझ नही आ रहा है कि क्या करे? पहाड़ के टुकड़ों से बनी मूर्तियों को पूजना जानता है मनुष्य लेकिन पहाड़ की अहमियत को नही समझता । नदी की एक बोतल पानी को सम्भाल कर सालों रखता है, उसके एक बूंद अपने उपर छिड़क लेने भर से वह खुद को पूर्णतः शुद्ध और पापमुक्त समझ लेता है । लेकिन नदी की सुरक्षा, देखभाल और उसके साथ वर्ताव कैसे किया जाए ये समझ नही आता ? बारिश के लिए यज्ञ, पूजा और पाखंड तो कर सकते है लेकिन मनुष्य को बारिश की प्रकृति समझ में नही आती कि बारिश कैसे हो ?
मनुष्य का पहला कर्त्तव्य है कि जिस धरती पर वह जी रहा है उस धरती के प्रकृति को समझे । और उसे यह समझना होगा कि जो धरती की प्रकृति है, धरती का अंग है, धरती का स्वभाव है, वह इस मनुष्य का और धरती पर जीने वाले सभी जीवो के जीने का मूल आधार है । चूँकि सभी जीवो में समझदार मनुष्य है इसलिए मनुष्य का यह धर्म है कि वह- धरती की प्रकृति को कैसे बनाए रखा जाए ? कैसे बचाया जाए ? कैसे इसकी रक्षा की जाए ? इन सभी सवालों के बारे में सोचे और इसका हल ढूँढे । तभी मनुष्य मनुष्य कहलाने लायक है अन्यथा आज मनुष्य ने जैसी अपनी छवि बना रखी है उसमें मनुष्य को मनुष्य कहने पर भी शर्म आती है ।
आज मनुष्य को अपने ही प्रकृति का कोई इल्म नही है उसे इस धरती के प्रकृति से क्या मतलब? आज मनुष्य धार्मिक बनने के चक्कर में पाखंडी हो गया है । सामाजिक बनने के चक्कर में व्यापारी हो गया है, बलात्कारी हो गया है । अब सवाल यह उठता है कि क्या मनुष्य को अपने बारे इतना सब कुछ जानकर क्या यह एहसास नही होता कि सचमुच में हम ऐसा हो चुके है । क्या पुरातन में कभी आने वाले समय में इसी तरह के मनुष्य की परिकल्पना की गई होगी ? मनुष्य के प्रकृति में इतना बड़ा बदलाव... उफ्फ बहुत ही दुःखदायी और हानिकारक है ...
हे मनुष्य..! जिस ईश्वर को ढूँढने तुम मंदिर, मस्जिद, चर्च या और कही तीर्थ पर जाते हो... व्रत, पूजा , यज्ञ, हवन इत्यादि पाखंड करते हो और यह समझ लेते हो कि तुम्हे अल्लाह, ईश्वर मिल जाएगा, तुम्हे शांति, स्वर्ग और जन्नत मिल जाएगी, तो तुम भूल कर रहे हो। तुम्हारा ईश्वर इसी प्रकृति की गोद में है । यही प्रकृति जो तुम्हारे जीवन का आधार है इसी की छाँव में तुम्हे सभी स्वर्ग और शांति नसीब होगी । इसलिए इसकी रक्षा करो और सुख से इस धरती पर जीयो। अंधविश्वास और पाखंड मे जीकर तुम विकृत हो चुके हो, वास्तविकता में जीओ, आँखे खोलकर जीओ, समझकर जीओ, तुम्हे एक अद्भुत चीज (दिमाग) दी है इस प्रकृति ने उसका इस्तेमाल करो । अपनी प्रकृति और धरती की प्रकृति के बीच सामंजस्य बिठाओ और जीने का आनंद लो। ये धरती, नदी, पहाड़ , जंगल , सूर्य , चंद्रमा और समन्दर सभी तुम्हारे हितैषी है। इनके साथ जीओ और स्वर्ग का एहसास करो।
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