कहाँ हैंं कृष्ण ...? और कृष्ण का धर्म ...!


कहाँ हैंं कृष्ण ...? और कृष्ण का धर्म ...!

कहाँ हैंं कृष्ण ...? और कृष्ण का धर्म ...!

Geeta Shloka आज भगवान श्री कृष्ण का जन्मोत्सव पूरे धूम-धाम से मनाया जा रहा है। श्री कृष्ण को “भगवान” का दर्जा देकर मन्दिर के तख्त पर बिठाकर यह देश लगभग 5000 सालों से पूजता आ रहा है। परंतु आज तक इस देश का कोई एक कोना कृष्णमय नहीं हुआ जबकि तत्कालीन देश और समाज की बन रही परिस्थितियों में कृष्ण के विचारों की सख्त जरूरत है।


कृष्ण को “भगवान” का दर्जा देकर मन्दिर के तख्त-ओ-ताउस पर बिठाकर इस देश ने सबसे बड़ी भूल की लेकिन विडम्बना ये भी है कि किसी को “भगवान” बना कर पूजना, इस देश की फितरत में हमेशा से रहा है। जिनका अनुसरण नहीं कर सकते उन्हें मंदिर में बिठा दो। जबकि हमें ये जरूरत थी कि कृष्ण ने जो जीने तरीका दिया था , जीकर दिखलाया था, उसे आज समय की इस कसौटी पर कसने की, वक्त की इस तराजू पर तौलने की। मेरे विचार से आज के परिपेक्ष्य में भी कृष्ण के विचार उत्तम है, जिसकी जरूरत है एक इंसान को, परिवार को, समाज को और देश को। कृष्ण अपने समय से लेकर आजतक इस देश के जगतगुरू रहे है, जिनके विचारों को अपने आचरण में, अपने व्यवहार में लाने की जरूरत थी न कि उनके नाम का व्रत या पूजा कर एक नये ढोंग करने की न ही उन्हें मंदिर में बिठाने की और पाखंड करने की। अगर वो जगतगुरू है तो उनका सम्मान इसी में होता कि हम उनके बताये रास्ते पर चलते। उनकी पूजा इसी में होती कि उनके बताये कर्मो को हम अपने प्रयोग में लाते। और यही हमारा व्रत होता ।


आज कृष्ण का जन्मोत्सव है, लोग भजन गा रहे है, व्रत रखा है सभी ने, उपवास किया है सबने, मनमोहक झाँकियाँ निकाली जा रही है, 12 बजे का इंतजार कर रहे है, फिर प्रसाद ग्रहण करेंगे, प्रसाद वितरण भी होगा, हर्षोल्लास से सभी झूम उठेंगे। सुनने में बड़ा ही अच्छा लगता है, यहाँ आस्था और धर्म रग-रग में कूट-कूट कर भरा हुआ प्रतीत होता है। ऐसा लगता है यहाँ सब कृष्णमय हो चुके है । लेकिन ये सब बस क्षणिक भर के लिए , कल से फिर सब अपने-अपने रोजमर्रा की जिन्दगी में उलझ जायेंगे। न रहेगा कोई कृष्ण और न ही कोई उनकी बातें। क्या कृष्ण साल में सिर्फ एक दिन याद करने के लिए है.... ? नहीं, आज कृष्ण को जीने की जरूरत है पल-पल। हर सांस में कृष्ण को भरने की जरूरत है। कृष्ण को “जगतगुरु” मानकर उनके आदर्शों पर चलने की आवश्यकता है, न कि एक दिन याद करके रस्मों रिवाज निभाने की।


जीवन के तथ्य और सत्य को समझने के लिए कृष्ण को समझना अति आवश्यक है। सभी धर्मों के रस्म तथ्यों पर पर्दा डालकर आमजन को रस्मों में उलझा देता है वही कृष्ण का धर्म, तथ्यों और रस्मों को ठीक उसी तरह अलग-अलग कर देता है जैसे अन्धेरे में दीपक की रोशनी, जिससे ये फर्क करना आसान हो जाता है कि कहाँ उजाला है और कहाँ अन्धेरा। कृष्ण रोशनी हैं धर्म के रस्मों के अन्धेरे में। लेकिन हमारी फितरत रस्मों को ढोने में रही है न कि तथ्य और सत्य को जानने की। और इसी फितरत का फायदा आज के ढोंगी और पाखंडी धर्मगुरु खूब उठा रहे है। आज के धर्मगुरु अपना व्यापार चलाने के लिए उस जगतगुरु को भगवान बनाकर सत्य को ढँकने के लिए पूजा और व्रत का जो रस्म दिया वो सभी को खूब भाई । जिसका परिणाम यह हुआ कि सत्य कहीं खो गया और रस्म चारों तरफ खूब फलीभूत हो रहा है। चारो तरफ पाखंड फैलता जा रहा है । और सत्य का सूरज डूबता जा रहा है ।

जिन्हें यकीं नही हो रहा या जिन्हे याद नही कि कृष्ण ने क्या कहा था । उन्हें मैं गीता के अध्याय 4 के कुछ श्लोकों से रू-ब-रू करा देता हूँ

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥14॥
कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नही है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते- इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता॥
(लेकिन आज लोगों में फल की चिंता अधिक होती है । कर्म कैसे करे ये तो दूर की बात है, कर्म करने पर ही संदेह है, कर्म करना नही चाहते और फल पूरा चाहते है । चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े । और यही विकर्म हो जाता है । )

किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ग्यात्वा मोक्ष्यसेशुभात्॥16॥
कर्म क्या है? और अकर्म क्या ? - इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते है। इसलिये वह कर्मतत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जायेगा।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥17॥
कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए; क्योंकि कर्म की गति गहन है ॥

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥18॥
जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करनेवाला है ।

त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोअपि नैव किंचितत्करोति सः॥20॥
जो पुरूष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नही करता ॥

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बषम्॥21॥
जिसका अंतःकरण और इंद्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नही पाप्त होता ॥

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥28॥
कई पुरुष द्रव्यसम्बंधी यज्ञ करनेवाले हैं, कितने
ही तपस्यारूप यज्ञ करने वाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करनेवाले है और कितने ही अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले है॥

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुदध्वा प्राणायामपरायणाः ॥29॥
अपरे नियताहाराः प्राणांप्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥30॥
दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते है, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु को हवन करते है तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों में ही हवन किया करते है । ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जाननेवाले है ॥

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजांविद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥32॥
इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेदकी वाणी में विस्तार से कहे गये है। उन सबकों तू मन, इंद्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होनेवाले जान, इस प्रकार तत्त्व से जानकर उनके अनुष्ठानद्वारा तू कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा॥ (तत्त्व से जानकर भला कोई क्यो चलेगा? सभी पाखंड में ही जीना चाहते है । अब पत्थर की मूर्ति को दूध पिलाने ही पुण्य मिलता है। तो भला तत्त्व से जानने की जरूरत क्या। )

श्रेयांद्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥33॥
हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यंत श्रेष्ठ है, तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते है ।
(ज्ञान किसको है? जो पाखंड बताता है, ढोंग सिखाता है , आज इस देश में वही ज्ञानी है, वही पूजे जाते है । अब ढोंग वाला यज्ञ नही होगा तो उनका व्यापार कैसे चलेगा। लोगो को लगेगा भी नही कि कुछ किया या हुआ। )

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञनप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ॥36॥
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है; तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाद्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायगा॥
(पाप धोने के लिए गंगा है न, फिर क्या जरूरत है ज्ञानरुपी नौका की । पाप धोने के नाम पर लोग गंगा को गंदा कर रहे है । गंगा का अपमान कर रहे है । गंगा मैली हो गई है, गंगा सूखती जा रही है । गंगा मरती जा रही है और लोग अपना पाखंड पूरा करने में लगे है । )

कृष्ण के एक भी कथन को पूरा करने के लिए लोग राजी नही है । कृष्ण के नाम पर लोग सिर्फ ड्रामा करेंगे और खुद ही खुद से कृतार्थ महसूस कर लेंगे। जो जितना पैसा दान दिया, खर्च किया, इस ड्रामे में लुटाया वह खुद को उतना की पुण्यात्मा महसूस करता है । मेरा सवाल अभी तक जिंदा है कि जिस कृष्ण की मूरत लिए तुम गली-गली घूम रहे हो वह कृष्ण कहाँ है ? क्या उस मूरत में ? उस झाँकी में ? उस पाखंड में ? उस ड्रामें मे?

कृष्ण हमेशा पाखंड के खिलाफ थे और आज इस देश में अंधविश्वास और पाखंड कूट-कूट कर भर गया है । हर कोई अपने बच्चे को राधा-कृष्ण का श्रृंगार कर आनंद ले लेते है लेकिन सवाल फिर वही है कि कृष्ण कहाँ है ? क्या कृष्ण, कृष्ण के श्रृंगार में है ?

कृष्ण अपने उस कथन में है ......... कृष्ण के कथन को हम करके दिखाये, इसमें ही कृष्ण का सम्मान है । इसे आचरण में लाए इसमें उसकी पूजा है । उसके कथन पर अडिग होकर जीकर दिखाना ही व्रत है । बाकी सब ढोंग है, बेकार है । इसमें कोई रस नही है , नीरस है । जो तुम कर रहे हो उसके बारे में तटस्थ होकर जरा सोचना कि तुम क्या कर रहे हो ? खुद पर ही हँसोगे । क्योंकि उसका कोई अर्थ नही है, व्यर्थ है ।

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