मजहबी लुटेरे


मजहबी लुटेरे

मजहबी लुटेरे

हो क्या रहा है आज यहाँ
मज़हब की चारदीवारी में
इंसा इंसा के भूखे है
कभी रहते थे आपसदारी में

बचपन में हमें पढ़ाया था
रटाकर याद कराया था
आपस में सब मिल भाई है
मज़हब नें हमें सिखाई है
हम आज भी रटते रहते है
ऐसी तख्ती लेकर फिरते है
गलियों में शोर-शराबा करते
मज़हबी भीड़ कारवां होते
हम यूँ ही गाये जाते है
बेबूझ सियासतदारी में

धरती खून से लाल किया
भाई भाई का हलाल किया
कल चौक में हंसते गाते थे
मुफलिसी को युँ झुठलाते थे
रोटी मिलकर खाते थे
रोजी में हाथ बँटाते थे
दुआ सलाम भी होता था
जब ईद-दिवाली आता था
कुछ चंद बेकौम जाहिलों ने
फूट कर दिया यारी में

कुछेक सियासत उल्लू ने
अपनी कुर्सी की खातिर
मज़हबी कुछ गद्दारों को
और ईमान दारो को
बेकौम हिंसा का पाठ पढ़ाकर
अमन ज़ीस्त का फिक्र दिखाकर
खून-ए-हवस बढ़ाया है
अत्याचार कराया है
फिर आग फूँक दी सबने यहाँ
अपनी जिम्मेदारी में

आज यहाँ सन्नाटा है
गलियों को सबने बाँटा है  
अब इंसा इंसा बाँट दिया
मज़हब के नाम पे काट दिया
अब रिश्ता कोई मीत नही है
हार रहे सब जीत नही है
खुश हो रहा है उसका मन
फल-फूल रहा है उसका धन
जबर की आग लगाई जिसने
और घी डाली चिंगारी में

आपस में ये समझना होगा
नफरत भूलकर जीना होगा
हिंसा, क्रोध छोड़ना होगा
मोहब्बत धर्म बनाना होगा
हम इंसा इंसा भाई है
अब मिलने की रूत आई है
फिरसे आके गले लग जाओ
एक बार फिर जश्न मनाओ
गद्दारो को आज बता दो
कमी नही अपनी दिलदारी में

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