ज़ालिम


ज़ालिम

ज़ालिम 

ज़ालिम कह देता कि साथ लिया, तुझे आजमाँ के लिये
दुःख होता है जब भटकता हूँ, अपने आशियाँ के लिये

सर काटकर अपनो की खातिर, झुकते है सज़दे मे फिर
कमाते है वो कुछ यहाँ के लिये, कुछ वहाँ के लिये

सबको बनना है सिकन्दर, फ़रेबी इस ज़माने मे 
इस आपा-धापी मे भला रोता कौन है, आसमाँ के लिए

छुपाया था एक उलफ़त के ख़त, जिस अर्श पर हमने
घूम रहे वो सितमग़र अभी तक, उसी निशां के लिये

हंसके कहते है लगाकर लफ़्ज़-ए-नश्तर, दिल पे वो
यूँ ही कह दिया था हमने, बस मशखरां के लिये

नाम नही था शायद उसका, इन हाथों की लकीरों में
गोया आती है मुमताज जमीं पर, शाहजहाँ के लिये

कुछ चंद सिक्के ही, तब अमीरी बयां करते थे
अब अमीरी कम पड़ती है, हसरत-ए-दास्तां के लिये

ज़हर देता है मरहम की जगह, जब अपने ही कोई 
मुश्क़िल होता है सहना, हर एक ग़मज़दां के लिये

1 comment(s)

  • मनीषा राघव

    Speachless लफ्ज़ नहीं हैं बयां करने के लिए

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